3 Amazing Stories From The Dainikbhaskar
December 14, 2012 3 Comments
We take no Hindi papers at home so it was by complete chance that I came across these stories today.I read them and was moved.I think all of you who can manage to read them will be too.Read them and remember never to scorn small beginnings or despair of them,unknown to you they might lead to big things.Life is strange and it is not for us to know out fate before hand.Go with the flow and meet your destiny.
कबाड़ बेचते-बेचते बन गया खरबपति!
ज़मीन से आसमान तक जाने के तो हजारों किस्से हैं लेकिन यह किस्सा उसमें खास है। भारत का एक कारोबारी जो आज सारी दुनिया में हलचल मचा रहा है, दरअसल लोहे के कबाड़ बेचता था। उसने कॉलेज का मुंह तक नहीं देखा था।
जी हां, आज वही शख्स बिज़नेस की दुनिया में नए-नए मुकाम बनाता जा रहा है। उसने कई ऐसे काम किए हैं और उद्योग लगाए हैं जिससे उसकी कुल दौलत 6.4 अरब डॉलर से भी ज्यादा है। जी हां, आपने सही समझा, ये हैं वेदांत समूह के चेयरमैन अनिल अग्रवाल।
अनिल अग्रवाल के पास अपने विमान हैं, दुनिया के कई शहरों में ऑफिस हैं लेकिन एक समय था कि उनके पास एक साइकिल खरीदने के पैसे भी नहीं थे। उनके पिता ने जब उन्हें साइकिल खरीदकर दी तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आज भी वह उस साइकिल को भूलते नहीं है। उन्होंने एक सामाचार पत्र को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि साइकिल पाना मेरी जिंदगी का सबसे खुशनुमा दिन था।
कभी चलाते थे पान की दुकान,आज हैं खरबप
यह दास्तान एक ऐसे उद्यमी की है जिसने अपनी मेहनत और लगनशीलता से न केवल अपना बल्कि अपने परिवार का भाग्य बदल कर रख दिया। यह सज्जन हैं वी पी नंदकुमार और इस समय वह भारत की एक शीर्ष कंपनी चलाते हैं। इस कंपनी का नाम है मण्णपुरम फाइनेंस इसकी देश भर में 2,600 शाखाएं हैं, इसका सालाना कारोबार 2200 करोड़ रुपए का है। और इसके पास 11,000 करोड़ रुपए की परिसंपत्ति है।
मण्णपुरम फाइनेंस का जन्म पान की एक दुकान से हुआ। यह दुकान केरल के त्रिसूर 1949 में खोली गई थी। पान की इस दुकान को नंदकुमार के पिता चलाते थे। वह जरूरतमंदों का सोना गिरवी रखकर उन्हें पैसे देते थे। नंदकुमार की माँ बच्चों को पढ़ाती थीं। लेकिन इन सबसे घर बड़ी मुश्किल से चल पाता था। इसलिए उन्होंने पढ़ाई पूरी करने के बाद बैंक में नौकरी कर ली।
1986 में नंदकुमार के पिता को कैंसर हो गया और तब उन पर घर-परिवार की जिम्मेदारी आ पड़ी। तब उनसे नौकरी छोड़नी पड़ी। उन्होंने नौकरी छोड़ दी। उस समय उनकी पिता के पास पांच लाख रुपए की पूंजी थी। नंदकुमार ने उस पान की दुकान को नया स्वरूप दिया और अपने बिज़नेस को एक कॉरपोरेट की तरह चलाना शुरू किया। य़ह काम आसान नहीं था। उन्होंने अपने इलाके में सबसे पहले कंप्यूटर इस्तेमाल करना शुरू किया।
पहले चलाते थे तांगा.. अब हैं खरबपति
जी हां यह कोई कहानी या कोरी गप्प नहीं बल्कि सच्चाई है आज यह महाश्य मसालों की दुनिया के बेताज बादशाह हैं जी हां हम बात कर रहे हैं एमडीएच मसाला कंपनी के मालिक महाश्य धर्मपाल जी की जिनका जन्म 27 मार्च 1927 को सियालकोट में हुआ था। 1933 में इन्होंने पांचवी कक्षा में ही पढ़ाई बीच में छोड़ दी थी। 1937 में महाश्य जी ने अपने पिता की मदद से अपना एक छोटा सा शीशे का बिजनेस शुरु किया उसके बाद साबुन और दूसरे कई बिजनेस किए लेकिन उनका मन उनमें नहीं लगा बाद में उन्होंने अपना पुश्तैनी मसालों का बिजनेस शुरु किया।
27 सिंतबर 1947 में भारत बंटवारे के वक्त महाश्य जी भारत आ गए उस समय उनकी जेब में सिर्फ 1500 रुपए थे उन्होंने 650 रुपए में एक तांगा खरीदा और उसे चलाने लगे वो दो आना प्रति सवारी लेते थे। उसके बाद उन्होंने एक खोका खरीदा और उसमें अपना मसालों का बिजनेस देगी मिर्च वालों के नाम से फिर से शुरु किया। यहीं से महाश्य जी की सफलता का कारवां शुरु होता है इनकी सफलता का कोई बड़ा फर्मूला नहीं है केवल ग्राहकों के प्रति ईमानदारी ही महाश्य जी की सफलता का राज है।
महाश्य जी सिर्फ मसालों का बिजनेस ही नहीं चलाते हैं बल्कि उनके कई अस्पताल और स्कूल भी हैं। जिनमें गरीब और बेसहारा लोगों को सहारा मिलता है। 86 वर्षीय महाश्य धर्मापाल जी के एमडीएच और देगी मिर्च नाम से मसाले दुनिया भर में मश्हूर हैं देशभऱ में एमडीएच के 1000 से ज्यादा थोक और 4 लाख से ज्यादा रिटेल डीलर्स हैं। एमडीएच के 52 प्रोडक्ट 140 से ज्यादा अलग अलग पैकेटों में उपलब्ध है।
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Nice stories. I’m very impressed.
Thank You.Glad you liked the stories.